सद्गुरु उस कुशल चित्रकार की तरह होता है जो आड़ी तिरछी रेखाएँ खींच, अंततः एक सुंदर आकृति गढ़ सबको चौंका देता है। सुंदर शिष्य हो या संस्था सब के आधार में यह गुरु ही होता है। ऐसी ही एक गुरु- शिष्य परंपरा की बात आज हम यहाँ करेंगे।
यूँ तो भारत भूमि पर और सीमाओं से परे भी अनेकों गुरु-शिष्य परंपराएँ निर्बाध रूप से प्रवाहमान हैं। लेकिन एक गुरु-शिष्य परंपरा, 161 वर्ष पूर्व उत्तराखंड के द्वाराहाट में जन्मी, जब अमर गुरु महावतार बाबाजी ने बनारस के गृहस्थ श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय को अद्भुत ढंग से रानीखेत स्थानांतरित करा, दूनागिरि पर बुला, क्रियायोग की दीक्षा दी। जिस विशेष प्रयोजन से यह घटना घटी, वह था आधुनिक विश्व को विज्ञान सम्मत ऐसी योग प्रविधि देना जो भविष्य में विश्व समरसता एवं सौहार्द की आधारशिला बन सके।
जनवरी 1894 इलाहाबाद कुंभ मेले में बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य श्रीयुक्तेश्वर गिरि को दर्शन दे उन से पूर्व व पश्चिम के धर्म ग्रंथों में निहित आधारभूत एकता पर पुस्तक लिखने और कुछ समय बाद पश्चिम में क्रियायोग के प्रचार प्रसार निमित्त प्रशिक्षित करने हेतु एक शिष्य भेजने को कहा। अर्थात लाहिड़ी महाशय और उनके शिष्य श्रीयुक्तेश्वर को चुनने वाले मृत्युंजय बाबाजी ने 5 जनवरी 1893 में जन्मे एक वर्षीय बालक योगानन्द (मुकुंद) को भी चुन लिया था। केवल इतना ही नहीं, 9 वर्षीय श्री श्री परमहंस योगानन्द के घर लाहौर में, एक साधु भेज उनकी माँ तक संदेश पहुँचाया, जिसके अनुसार उनकी माताजी की हथेलियों के बीच एक चांदी का ताबीज प्रकट हुआ, जिसे गुरु मिलने तक योगानन्दजी का मार्गदर्शन कर लुप्त हो जाना था। और ऐसा ही हुआ।
तत्पश्चात 1920 में योगानन्दजी अमेरिका जाने से पूर्व ईश्वर से आश्वासन चाहते थे, तो 25 जुलाई को उनके घर के दरवाजे पर पहुँच बाबाजी ने न केवल दर्शन दिए बल्कि उनके जीवन के बारे में अनेकों बातें बताईं। कुछ व्यक्तिगत उपदेश दिए और कई गोपनीय भविष्यवाणियाँ की। अंत में बाबाजी ने ईश्वर साक्षात्कार की वैज्ञानिक प्रणाली क्रियायोग का सब देशों में प्रसार हो जाने और फल स्वरूप राष्ट्रों के बीच सौमनस्य- सौहार्द बढ़ने की बात कही।
योगानन्दजी ने भारत में ना केवल योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) की 1917 में स्थापना की बल्कि 1920 में अमेरिका जाने के बाद वहाँ भी सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की नीव डाली। जो सौ वर्षों से अधिक से आत्म-साक्षात्कार की वैज्ञानिक प्रविधि क्रियायोग के प्रचार प्रसार में लगी हैं। दोनों संस्थाएँ मानवीय चेतना के उत्थान द्वारा, विश्व-बंधुत्व के लिए प्रयासरत हैं।
वाईएसएस की स्थापना के तीन वर्ष बाद ही योगानन्दजी के पश्चिम चले जाने और दूर से ही संस्था के सुचारू संचालन हेतु भावी शिष्य चुनने में भी बाबाजी ने अहम भूमिका निभाई। ईश्वर व सत्य की खोज में लगे 35 वर्षीय बिनयेंन्द्र नारायण दुबे को, 1946 की एक मध्य रात्रि में राजगीर के सरकारी विश्रामगृह में दर्शन दे, बाबाजी ने मंत्र दिया। वह अगले 12 वर्षों तक उस अनजान मुखाकृति को खोजते रहे और फिर 1958 में एक शांत आश्रम की खोज उन्हें दक्षिणेश्वर योगदा आश्रम ले आयी; जहाँ योगी कथामृत में बाबाजी का चित्र देख उनकी खोज पूरी हुई। स्वामी श्यामानन्द गिरि बन इन्होंने योगदा संस्था और योगानन्दजी के कार्य को आगे बढ़ाया।
इस अनोखी परंपरा के सूत्रधार बाबाजी ने न केवल लाहिड़ी महाशय, श्रीयुक्तेश्वर, योगानन्दजी को चुना बल्कि उनकी संस्थाओं के भावी प्रमुखों को चुनने और मार्गदर्शन का आश्वासन भी दिया। योगानन्दजी को पश्चिम जाने के लिए आश्वस्त कर बाबाजी ने इस महान गुरु-शिष्य परम्परा को गढ़ने व संस्थाओं के गठन की रूपरेखा खींची। 25 जुलाई मृत्युंजय बाबाजी के स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है। अधिक जानकारी: yssofindia.org
लेखिका: – अलकेश त्यागी