कृष्ण चैतन्य का उद्भव

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कृष्ण चैतन्य का उद्भव

कृष्ण जन्माष्टमी के पावन अवसर पर आइये, अपने हृदय के पालने में कृष्ण के जन्म को अनुभूत करें, कृष्ण चैतन्य के उद्भव का उत्सव मनाए। परंतु कैसे ?

इस धरा पर समय समय पर अवतरित संत महात्माओं के वचन और आशीर्वाद पाकर, उनकी वाणी को आत्मसात करके हम यह उत्सव यथार्थ रूप में मनाने के अवसर को घनीभूत कर सकेंगे।

इस प्रसंग में सुप्रसिद्ध ग्रंथ योगी कथामृत के लेखक श्री श्री परमहंस योगानन्दजी के ये शब्द हमें कितनी मधुरता प्रदान करते हैं –
“ईश्वर अनन्त परमानन्द था; परंतु वह अकेला था, उस परमानन्द का आनन्द लेने वाला उसके सिवा कोई नहीं था। इसलिए उसने कहा: क्यूँ न मैं एक सृष्टि की रचना कर अपने को ही अनेक आत्माओं में विभाजित कर लूँ ताकि वे सब आत्मायें उस नाटक में मेरे साथ खेलें….मुझे प्रेम करें…“

उस सच्चे स्रोत के साथ एकाकार होने के लिए ही योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इण्डिया/ सेल्फ़ रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप की स्थापना कर योगानन्दजी ने विश्व को योग की वैज्ञानिक प्रविधियाँ प्रदान कर हम पर महान उपकार किया है, जिनमें सबसे उद्दात क्रियायोग की प्रविधि इस उद्येश्य को पूर्ण करने में सक्षम है।

योगानन्दजी कहते हैं – जहाँ हमारी ऊर्जा होती है वहीं हमारी चेतना होती है। शरीर में विद्यमान हमारी ऊर्जा हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियों में प्रवाहित होकर चेतना को बहिर्गामी बनाती है। यदि इसके प्रवाह को अंतर्मुखी कर दिया जाए तो उसी अंतर्मुखी, निर्लिप्त मन के माध्यम से हम प्रेम के उस अनंत स्रोत तक पहुँच सकते हैं जो हमें कृष्ण चैतन्य का अनुभव करा सकता है, जहाँ कृष्ण हमारी चेतना में जन्मते हैं। और तब भगवद्गीता में दिया गया कृष्ण का यह वचन साकार होगा, “संन्यास एवं योग द्वारा अपना चित्त मुझमें निरंतर लगाए रखने से तू मुक्त होकर मुझको प्राप्त हो जाएगा।”

इसके लिए गीता के अध्याय 4 में संकलित श्लोक 29 में भगवान कृष्ण कहते हैं – अन्य भक्त प्राण के भीतर जाते श्वास को अपान के बाहर जाते प्रश्वास में तथा अपान के बाहर जाते प्रश्वास को प्राण के भीतर जाते श्वास में हवन करते हैं और इस प्रकार प्राणायाम (क्रियायोग की प्राणशक्ति पर नियंत्रण की विधि) के निष्ठापूर्वक अभ्यास के द्वारा श्वास और प्रश्वास के कारण को रोक देता है (सांस लेना अनावश्यक बना देता है)। योगी श्वास के इन दो प्रवाहों तथा इनके परिणामस्वरूप आने वाले क्षय तथा वृद्धि के परिवर्तनों को, जो श्वास एवं हृदय की गति तथा सहवर्ती शरीर चेतना के उत्पादक कारण हैं, को निष्प्रभावित कर देता है। इस प्रकार योगी प्राणशक्ति पर सचेत नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है। यही क्रियायोग प्रविधि है जो अत्यंत सूक्ष्म एवं प्रभावकारी है। जिसके विषय में योगानन्दजी ने अपनी पुस्तक योगी कथामृत में तथा ईश्वर अर्जुन संवाद: श्रीमद्भगवद्गीता में इस प्रविधि के बारे में विस्तार से बताया है।

इस प्रविधि को सीखने के लिए उत्सुक पाठकगण एक विश्वसनीय माध्यम के रूप में yssofindia.org वेबसाईट को देख सकते हैं जहाँ वे जानेंगे कि किस प्रकार ध्यानयोग की प्रारम्भिक वैज्ञानिक प्रविधियों का अभ्यास करके अपने शरीर को क्रियायोग की उच्चत्तम प्रविधि के लिए तैयार किया जाए तथा अधिकृत संन्यासियों से इसे सीख कर एक आध्यात्मिक वायुयान मार्ग पर अग्रसर हुआ जाये। (क्रियायोग को योगानन्दजी ने हवाई मार्ग बताया है।)

कृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर हम मंगलकामना करते हैं कि सच्चे अर्थों में सभी भक्तगण अपने हृदय को कृष्ण जन्म के आनन्द से सराबोर करें। अधिक जानकारी : yssofindia.org

लेखिका : मंजुलता गुप्ता

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