अपरिमेय मूल्य के एक दुर्लभ रत्न – श्री श्री परमहंस योगानन्द  (130वां जन्मदिन विशेष) 

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किसी महानुभाव के ये श्रद्धापूर्ण शब्द – “अपरिमेय मूल्य के एक दुर्लभ रत्न, जिनके समान संसार ने अभी तक कोई नहीं देखा, श्री परमहंस योगानन्द भारत के उन प्राचीन ऋषियों एवं संतों के आदर्श प्रतिनिधि रहें हैं जो भारत के वैभव हैं।“ – हमें इस अपरिमेय रत्न के बारे में और अधिक जानने के लिए विवश करते हैं।   
          बालक मुकुन्द के रूप में, 5 जनवरी, 1893 को एक ऐतिहासिक शहर गोरखपुर में जन्में, इस संत में शैशव अवस्था से ही ईश्वर के प्रति तड़प स्पष्ट परिलक्षित होती थी। उनके छोटे भाई सनन्दलाल घोष अपनी पुस्तक ‘मेजदा’ में बताते हैं – “शैशव अवस्था से ही मेजदा (मुकुन्द) शांत और एकान्त स्थानों की और आकृष्ट होते थे….और अधखुली आँखों से ध्यान की योग मुद्रा धारण कर लेते थे। कई बार उनको मंद ध्वनि में बुदबुदाते हुए सुना जाता था, जैसे वे प्रार्थना या किसी से वार्त्तालाप कर रहे हों।“
          किसी ने सही कहा है- होनहार बिरवान के होत चिकने पात- ईश्वर के साथ सान्निध्य स्थापित करने वाला ये बालक ईश्वर को पाने की अपनी तृष्णा को शांत करने हेतु एक गुरु की तलाश में, अनेक ईश्वर प्राप्त संतों से मिलने के लिए उत्सुक रहता था। अंत में उनका मिलन अपने नियत गुरु, एक महान् संत, स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी से हुआ और लगभग 10 वर्ष उनके कठोर प्रशिक्षण में रहकर योगानन्द में परिवर्तित हो गया।
          संगठनात्मक कार्य के विरुद्ध होते हुए भी उन्होंने अपने गुरु की प्रेरणा से उनकी आज्ञा का पालन करने हेतु योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/ सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (अमेरिका में) की स्थापना, इस प्रार्थना के साथ की- “हे प्रभु, मुझे आशीर्वाद दीजिए कि आपका प्रेम मेरी भक्ति की वेदी पर सदा आलोकित रहे और मैं यही प्रेम सभी हृदयों में जागृत कर सकूँ।“
          इश्वरीय प्रेम की इसी लौ को प्रज्वलित करने हेतु सन् 1920 में अमेरिका में आयोजित धार्मिक उदारतावादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में निमंत्रण मिलने पर वे अमेरिका गए तथा अपने जीवन के तीस वर्ष से भी अधिक समय वहाँ बिता कर अज्ञानता के अंधकार के मध्य सत्यान्वेषियों में  इश्वरानुभूति की एक सजग आशा जगाई। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होने भिन्न-भिन्न स्थानों पर, अथक अनेक व्याख्यान दिए, लेखन कार्य किया, ध्यान की उच्चत्तम एवं पावन वैज्ञानिक प्रविधि क्रियायोग का प्रसार किया।
          अपनी आत्मकथा ‘योगी कथामृत’’ जन-जन की अति प्रिय पुस्तक, जिसे गौरव ग्रंथ के रूप में पूजा जाता है, में क्रियायोग के विषय में वे कहते हैं – “यह एक विशिष्ट कर्म या विधि (क्रिया) द्वारा अनंत परमतत्त्व के साथ मिलन (योग) है। इस विधि का निष्ठापूर्वक अभ्यास करने वाला योगी धीरे-धीरे कर्म बंधन से या कार्य कारण संतुलन की नियमबद्ध शृंखला से मुक्त हो जाता है।“ ईश्वर प्रदत्त स्वतंत्र इच्छाशक्ति का प्रयोग करके पाठक, इस वैज्ञानिक प्रविधि, क्रियायोग को सीखने, तथा इसके लिए अनिवार्यताओं को जानने हेतु yssofindia.org को देख सकते हैं।
          वे कहते थे – “सभी आत्माएँ समान हैं, मुझमें और आप में केवल एक अंतर है, मैंने प्रयास किया….” कितना आश्वासन है इन शब्दों में! अगर हम भी प्रयास करें तो ईश्वर को निश्चय ही पा लेंगे।
          तो आइए, पूर्व और पश्चिम के इस महान् योगी, जगद्गुरु के आविर्भाव दिवस के शुभ अवसर पर व्याप्त मधुर स्पंदनों के मध्य, दिव्य आनन्द के अथाह सागर में डुबकी लगाएँ तथा अपने सर्वोत्तम प्रयासों के द्वारा अपने अन्दर के संत को जगा लें और उनके समान बन जाएँ।
अधिक जानकारी : yssofindia.org
– लेखिका : मंजुलता गुप्ता

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